Tuesday, February 16, 2010

हाइटेक प्यार का दौर और आज की युवा पीढ़ी





वेलेंटाइन डे यानि प्यार का दिन। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से बिल्कुल अलग होने के बावजूद भारतीय समाज में किसी पर्व एवं त्योहार से कहीं ज्यादा खास हो चली है। यही नहीं करीब एक सप्ताह पहले से ही न जाने किस-किस डे के रूप में इसे मनाने की परंपरा है और यह बड़ी तेजी से भारतीय जनमानस में घुलती जा रही है।
मैं यहां न तो वेलेंटाइन को दोषी ठहराने की कोशिश कर रहा हूं ना ही उसकी उन्मुकतता से मुझे कोई परेशानी है और ना ही मैं उसके इतिहास में जाना चाहता
हूं । मेरा सीधा सा प्रश्न है कि क्या वेलेंटाइन का यथार्थ आज भी समाज में जिन्दा है? क्या प्यार का मतलब आज भी युवाओं के लिए वही है जो पहले था ? अहम सवाल यह भी है कि वेलेंटाइन का इस तरह से मनाया जाना क्या उचित है?
निश्चित ही आज समाज में वेलेंटाइन का मतलब बदल चुका है। आज वेलेंटाइन प्रेमी-प्रेमिकाओं के दम पर नहीं अपितु बाजार के दम पर जिंदा है। मीडिया और बाजार ने आज वेलेंटाइन का ऐसा आकर्षक रुप पैदा किया है कि न चाहते हुए भी युवा इसके आकर्षण के फंदे में फंसने को मजबूर हैं। आलम यह है कि लड़के-लड़कियों पर एक दूसरे को वेलेंटाइन बनाने का भूत सवार है।
कीमती तोहफों,तमाम साजो-सामान के साथ प्रेम निवेदन किया जा रहा है। इस वर्ष जो जिसका वेलेंटाइन है ,वह पिछले वर्षों में कितनों का वेलेंटाइन रहा है ,न तो कोई जानता है और ना ही जानना चाहता है। यह सिलसिला लगातार चल रहा है और आज का बाजार इसे आगे बढ़ाने के लिए हर तरह से प्रयासरत है। बाजार के कारण ही आज प्रेम निवेदन का सबसे बड़ा हथियार एसएमएस बन गया है। आज जज्बात नहीं जिस्म बोलते हैं।
प्यार के तीन भाग होते हैं- आत्मीयता,आवेग और प्रतिबद्धता । क्या मौजूद है ये तीनों गुण आज वेलेंटाइन मना रही युवा पीढ़ी के भीतर। निश्चित ही इसका जबाब न होगा। क्योंकि अब समय और वेलेंटाइन के मायने बदल चुके हैं। आज के हाइटेक प्यार के दौर में प्रेमी-प्रेमिकाओं के पास इतना वक्त कहां है कि वे उन खूबसूरत लम्हों को जिएं और एक दूसरे की भावनाओं को महसूस कर सकें। अब तो शार्टकट का जमाना है। प्यार में भी शार्टकट ने अपने लिए जगह बना ली है और इस शार्टकट के नए फार्मूलों में युवा पीढ़ी जल्दी से जल्दी वेलेंटाइन के अधिक से अधिक स्वाद चखने को बेकरार है।
आज प्यार में कितनी सच्चाई है और कितना प्यार करती है आज की युवा पीढ़ी एक दूजे से यह तो इनके कारनामों से ही स्पष्ट हो जाता है। कोई बेवफाई का इल्जाम लगाकर अपनी प्रेमिका को गोली मार रहा है तो कोई प्रेमिका को पाने के लिए अपने मां-बाप को,तो वहीं कोई दूसरी लड़की के चक्कर में अपनी ही बीबी को मौत के हवाले कर रहा है। क्या यही है वेलेंटाइन का यथार्थ ?
वेलेंटाइन के नाम पर जो माहौल आज समाज में पैदा हो रहा है उसके परिणाम स्वरूप ही दुनिया के तमाम मंचों से इसके विरोध में स्वर उठने शुरू हो गए हैं।
एक दार्शनिक ने तो लव को `ए मिसअंडरस्टैंडिंग बिटवीन टू फूल्स` करार दिया है तो वहीं वेलेंटाइन के धूर विरोधी चार्ली लिखते हैं- ~वेलेंटाइन डे अकेला एक ऐसा राष्ट्रीय पर्व है जो एक दिमागी बीमारी को समर्पित है। आपाहिज बनाने वाले लव नाम के इस छलावे को मनाने के लिए लोग फूल भेजेंगे,विज्ञापन छपवाएंगे और रेस्तरा बुक करवाएंगे। चार्ली ने तो वेलेंटाइन डे के पागलपन से मुकाबले के लिए 15 फरवरी को अनवेलेंटाइन डे के रूप में मनाने की नसीहत तक दे डाली। उनके अनुसार एक दिन तो इश्क के निगेटिव पहलुओं को भी समर्पित होना चाहिए। एक ऐसा दिन जब लोग ऐसे संदेशों को भी भेज सकें ......तुमने मेरी जिन्दगी बर्बाद कर दी अब हमें अलग हो जाना चाहिए.........माफ करो बाबा.......।
प्रेम का वास्तविक रूप यह नहीं है जो आज समास में व्याप्त है। प्रेम में समर्पण का भाव होता है उसमें बनावटीपन और खोखलापन नहीं होता। प्रेम का असली पाठ तो हम उस छोटे से नीरीह कीट से सीख सकते हैं जो यह जानते हुए भी की दीपक के पास जाने से उसके अस्तित्व को खतरा है वह प्रेम ही है जिसके वशीभूत वह अपने प्राण तक को न्योछावर करने से पीछे नहीं हटता। लैला-मजनूं, हीर-रांझा, सीरी-फरहाद की प्रेम कहानियां यदि सिर्फ गुलाबों की अदला-बदली से लेकर शारीरिक प्रेम तक ही सीमित होतीं तो अमर प्रेम कहानी नहीं बनतीं अपितु कब की मिट गई होतीं परंतु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वहां दिखावा नहीं वास्तविक प्रेम था। वहां झूठे प्रेम के फेहरिस्त में शामिल होने और दोस्तों को अपनी प्रेममयी लिस्ट दिखाने की होड़ नहीं थी बल्कि अपने प्रेम को भगवान का रूप मानकर उसे वरण करने की ललक थी। तब दिल से दिल के मिलन का चलन था आज जिस्म से जिस्म के मिलन की चाहत है।
जरूरत है वेलेंटाइन के यथार्थ तो समझने की। वेलेंटाइन के उस स्वरूप को समझने की जिसमें सादगी है,अपनापन है,समर्पण है। आज की युवा पीढ़ी हर मामले में अपने पुरखों से आगे है और नित आगे निकलने के प्रयास में है तो फिर प्रेम के क्षेत्र में यह पिछड़ापन क्यूं क्या उस बाजारवाद के कारण जो इतना हावी हो गया है कि जब चाहे तब हमको हमीं से चुरा ले और हम ऐतराज भी न जता सकें। आखिर ऐसा कब तक चलेगा ? युवा पीढ़ी को समय रहते इससे पार पाना होगा। बाजार से उपर उठकर प्यार के सच्चे आयाम को अपनाना होगा। और तब.....................
`` जिस्म नहीं जज्बात बोलेंगे,
लोग तोहफे नहीं प्य़ार तोलेंगे। ``

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