Wednesday, February 24, 2010

सचिन का दोहरा शतक और खासियत की जंग















आज (२६ फरवरी )की सुबह कुछ खास थी. न जाने क्यूँ ऐसा लग रहा है .हाँ ये जरुर है की और दिनों से इतर थी पर ऐसे तो हर दिन जुदा होता है .अब देखिये न सीधी सी बात है हर दिन का नाम भी तो जुदा है कभी सोमवार है तो अगला मंगलवार न की फिर सोमवार .अरे मै बुधवार कैसे भूल गया जिसे बार बार मै खास बता रहा हूँ .अक्सर होता है जो खास होता है एन वक्त पर भूल जाता है या यूँ कहूँ की वो इतना ज्यादा दिल के करीब हों जाता है की हमे गलतफहमी हों जाती है की भला वो भी भूल सकता है क्या और अक्सर हम इस गलतफहमी के शिकार हों जाते हैं .
खैर यहाँ कोई गलतफहमी नही है. कम से कम पुरे दिन बीतने के बाद शाम की इस आतिशबाजिय माहौल और कॉलेज की तमाम टेंसनों से दूर काफी दिनों बाद सुकून से बिस्तर पर लेटा सिर्फ एक ही चेहरा दिल और दिमाग में बसाये, गारंटी के साथ कह सकता हूँ की आज का दिन खास था .
खास तो भैया खास ही होता है . पर तभी तक खास होता है जब तक दिल के पास होता है . यकीन मानिये जो आपके दिल के करीब नही वो हर वस्तु या व्यक्ति किसी कीमत पर आपके लिए खास नही . अब खास कोई पास तो है नही की न चाहते हुए भी पास में रखा जाये .खास बनाने के लिए खुद को खास बनाने की जरूरत भी नही होती बस यहीं तो पंगा है .भला हम खुद को खास क्यूँ न बनाये .अजीब इन्सान हैं आप फालतू बात करते हैं . हम दूसरों को खास बनाएं पर खुद खास न बने . वाह क्या सलाह दिया है आपने. मुझे तो लग रहा है की आप जिन्दगी में कभी खुद किसी के खास हुए ही नही हैं इसीलिए कुंठा वश ऐसी बातें कर रहे हैं .अब बोलिए ऐसे सवालों पर आप क्या कहेंगे पता था आप जरुर कुछ कहना चाहेंगे पर मै कुछ नही कहूँगा दरअसल मुझे लगता है कि मै अभी तक खास नही बन पाया हूँ .
अब खास कि परिभाषा अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हों सकती है .किसी के लिए ममता खास हों सकती हैं तो किसी के लिए सचिन . किसी के लिए बजट खास है तो किसी के लिए क्रिकेट .पर यहाँ भी एक बहस है जो मेरे क्लास कि बहस है वह यह कि किसी एक आदमी के लिए जो सच है वो दुसरे के लिए झूठ हों सकता है पर कई इसे मानने को तैयार नहीं उनके भी तर्कों में दम है भला जो गलत है ,अन्याय है वह दुसरे के लिए सच और न्याय का प्रतीक कैसे हों सकती है .जैसे यदि माओवादी लोगों को मार रहे है ये सच है तो सबका सच है और सरकार मओवादिओं के साथ जो कर रही है वो प्रशंशनीय है गलत है और सबके लिए गलत है .
ये बताने का मतलब बस इतना भर है कि इसी तरह सवाल उठ सकता है कि सचिन और ममता में खास कौन है . यहाँ भी एक ट्विस्ट है . कई बार खास होना समय और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है. एक ही समय में कई लोग एक ही साथ खास नही हों सकते यह ह्यूमन टेंडेंसी भी है .ऐसे समय में हमे उनके बीच चुनाव करना होता है .कई बार इस चुनाव में भी ऐसा प्रत्यासी जीत जाता है जिसके बाद में दगा देने पर लगता पहले वाला ही अच्छा था पर तब तक देर हों चुकी होती है और ५ साल के बाद के चुनाव कि तरह यहाँ भी इंतजार करना पड़ता है समय आने पर गलती सुधारने का पर कई बार इस में भी अच्छा विकल्प नही होता और मन मसोसकर किसी को भी चुन लेना पड़ता है इस तर्ज पर कि कुछ नही से तो बेहतर है कि कुछ हों .पर कई बार लगता है कि कुछ नही होना कुछ होने से बेहतर था .अब देखिये न एक कहानी में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए माँ का कलेजा निकाल लाता है निश्चित ही वहां उसके लिए उसकी प्रेमिका खास हों चली थी जो माँ के रिश्ते पर भारी पड़ गयी . यह विवाद का विषय हों सकता है कि यहाँ खासियत नही उसका हवासिपन रहा होगा वगैरह .......................
खैर इस खास के जंग में आज बुद्धिजीवी भी फंसे पड़े है और इनकी मशक्कत भी आकर खास पर रुक गयी है . आखिर खास कौन . लाख टके का सवाल है रेल बजट या क्रिकेट . क्रिकेट देश का धर्म है और तस पर क्रिकेट के भगवान का वन डे क्रिकेट में दोहरा शतक भला इससे खास क्या हों सकता है . पर दूसरी तरफ रेल है देश को सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला .देश के करीब हर व्यक्ति से सीधे जुडाव का प्रतीक .क्रिकेट हमारे लिए जूनून हों सकता है तो रेल किसी सुकून से कम नही . क्रिकेट और रेल में कौन है जिसके बिना भी जिन्दगी में एक रफ्तार बनी रह सकती है ...
कल अख़बार के पहले पेज पर अपने खास को देखने और दीखाने का जंग है . चूँकि यहाँ दीखाने वाले कि इस जंग में चलेगी इस लिए देखने वाले के पास सिवाय इंतजार के खुछ नही पर देखने वाले ने अपने खास को तय कर लिया है उसे पता है कि उसका खास कौन है और कल सुबह वह उसे ही देखने हेतु अख़बार चाहेगा बस अब यही चुनोती है दिखाने वाले के सामने . इस एकतरफा मैच में भी उसके हारने कि पूरी सम्भावना बरकरार है यदि वह देखने वाले के अनुरूप नही दिखा पाए .अब यहाँ एक और बहस सामने आती है कि इसका मतलब तो यही है कि हमे वही दिखाया जाता है जो हम देखना चाहते हैं अगर ऐसी ही बात है फिर हम बार बार इन्हें क्यूँ कंटेंट के लिए दोषी ठहराते हैं. पर यह मामला वैसा नही है क्यूंकि यहाँ हमने खुद को उसके लिए तयार किया हुआ है पर वहां हम ऐसी कोई तयारी नही होती हमे पता भी नही होता सामने क्या आने को है .चूकि ये दिल के करीब है इसलिए खास है और इसीलिए इस खास कि इतनी बेसब्री से आस है
वरना आज दोपहर से ही चैनलों ने अपने अपने खास को पुरे इत्मिनान से परोसा और दर्शकों ने भी जिसे अपना खास पाया उससे जुडाव पाया . उसके बारे में चर्चाएँ हुयीं . उसे आत्मसात किया गया . फिर भी एक कसक है ,एक ललक है उस खास के बारे में और जानने कि और पढने कि उसके और करीब जाने . यही वजह है कि कल सुबह का अभी से इंतजार है पर आज कि रात इतनी जालिम है कि कटती नहीं . अक्सर ऐसा होता है ,महसूस किया होगा जब किसी खास का इंतजार करो तो समय का चक्र बहुत धीरे घुमने लगता है .एक एक पल काटना मुश्किल होता है और पल तो मानो सालों में बदल रहे हों.
हम भी आज सुबह में रेल बजट पर लैब जर्नल निकाल रहे थे और शाम होते होते चर्चा तुल पकड़ ली कि ममता कि रेल कि जगह सचिन कि कहानी सेल करो .सचिन कि कहानी ज्यादा बिकेगी .पढ़ रहे है जानते हैं पर आगे तो व्यवसाय ही करनी है न. इसलिए यहाँ बेचने वाली बात तो करनी ही होगी ख़ुशी तो ईस बात कि है सारे दोस्त इस व्यवसाय के फायदे नुकसान को समझने लगे हैं .अब इसमें क्या छुपाना ८ महीने में ८०० बार बताया गया कि पत्रकारिता एक शुद्ध व्यवसाय है ..तभी तो हर कोई इस बात को लेकर भी परेशान था कि ऐसे मौकों पर किसे खास माना जाये . लेकिन आश्चर्य हुआ मुझे ये देखकर कि आज हम सभी को अपने लिए खास को इस आधार पर नही चुनना है कि वो हमारे दिल के कितने करीब है और हमे कितना अच्छा लगता है बल्कि इस आधार पर चुनना है कि वो बाजार में कितना फायदा पहुंचा सकता है .
सच आज खास कि परिभाषा भी कुछ खास हों गयी है .कल को खास कि परिभाषा एक बार फिर बदल जाये तो चिंतित मत होईयेगा .क्यूंकि जिन्दगी में कई बार अलग अलग समय पर अलग अलग लोग खास होंगे . कुछ खास पास में होंगे तो कुछ सिर्फ आभास में होंगे.पर जो भी खास होगा उसका एक एहसास होगा ..इस एहसास से ही उसके खास होने का विश्वाश होगा .
मैंने तो आज अपने खास दिन के लिए एक खास को अपने दिल दिमाग में बसा लिया है मै कल उसी कि खबरों की तलाश करूंगा और अगर आपका भी कोई किसी दिन या आज भी खास बन गया है तो कल से उसकी तलाश कीजिये. सच अपने लिए किसी खास की तलाश करना और फिर उसके बारे में जानने का प्रयास अपने आप में बहुत ही दिलचस्प और मजेदार है मुझे तो कम से कम इसकी अनुभूति हों रही है और मैं आपसे अपना अनुभव शेयर कर रहा हूँ .
शुभ रात्रि.

Tuesday, February 16, 2010

हाइटेक प्यार का दौर और आज की युवा पीढ़ी





वेलेंटाइन डे यानि प्यार का दिन। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से बिल्कुल अलग होने के बावजूद भारतीय समाज में किसी पर्व एवं त्योहार से कहीं ज्यादा खास हो चली है। यही नहीं करीब एक सप्ताह पहले से ही न जाने किस-किस डे के रूप में इसे मनाने की परंपरा है और यह बड़ी तेजी से भारतीय जनमानस में घुलती जा रही है।
मैं यहां न तो वेलेंटाइन को दोषी ठहराने की कोशिश कर रहा हूं ना ही उसकी उन्मुकतता से मुझे कोई परेशानी है और ना ही मैं उसके इतिहास में जाना चाहता
हूं । मेरा सीधा सा प्रश्न है कि क्या वेलेंटाइन का यथार्थ आज भी समाज में जिन्दा है? क्या प्यार का मतलब आज भी युवाओं के लिए वही है जो पहले था ? अहम सवाल यह भी है कि वेलेंटाइन का इस तरह से मनाया जाना क्या उचित है?
निश्चित ही आज समाज में वेलेंटाइन का मतलब बदल चुका है। आज वेलेंटाइन प्रेमी-प्रेमिकाओं के दम पर नहीं अपितु बाजार के दम पर जिंदा है। मीडिया और बाजार ने आज वेलेंटाइन का ऐसा आकर्षक रुप पैदा किया है कि न चाहते हुए भी युवा इसके आकर्षण के फंदे में फंसने को मजबूर हैं। आलम यह है कि लड़के-लड़कियों पर एक दूसरे को वेलेंटाइन बनाने का भूत सवार है।
कीमती तोहफों,तमाम साजो-सामान के साथ प्रेम निवेदन किया जा रहा है। इस वर्ष जो जिसका वेलेंटाइन है ,वह पिछले वर्षों में कितनों का वेलेंटाइन रहा है ,न तो कोई जानता है और ना ही जानना चाहता है। यह सिलसिला लगातार चल रहा है और आज का बाजार इसे आगे बढ़ाने के लिए हर तरह से प्रयासरत है। बाजार के कारण ही आज प्रेम निवेदन का सबसे बड़ा हथियार एसएमएस बन गया है। आज जज्बात नहीं जिस्म बोलते हैं।
प्यार के तीन भाग होते हैं- आत्मीयता,आवेग और प्रतिबद्धता । क्या मौजूद है ये तीनों गुण आज वेलेंटाइन मना रही युवा पीढ़ी के भीतर। निश्चित ही इसका जबाब न होगा। क्योंकि अब समय और वेलेंटाइन के मायने बदल चुके हैं। आज के हाइटेक प्यार के दौर में प्रेमी-प्रेमिकाओं के पास इतना वक्त कहां है कि वे उन खूबसूरत लम्हों को जिएं और एक दूसरे की भावनाओं को महसूस कर सकें। अब तो शार्टकट का जमाना है। प्यार में भी शार्टकट ने अपने लिए जगह बना ली है और इस शार्टकट के नए फार्मूलों में युवा पीढ़ी जल्दी से जल्दी वेलेंटाइन के अधिक से अधिक स्वाद चखने को बेकरार है।
आज प्यार में कितनी सच्चाई है और कितना प्यार करती है आज की युवा पीढ़ी एक दूजे से यह तो इनके कारनामों से ही स्पष्ट हो जाता है। कोई बेवफाई का इल्जाम लगाकर अपनी प्रेमिका को गोली मार रहा है तो कोई प्रेमिका को पाने के लिए अपने मां-बाप को,तो वहीं कोई दूसरी लड़की के चक्कर में अपनी ही बीबी को मौत के हवाले कर रहा है। क्या यही है वेलेंटाइन का यथार्थ ?
वेलेंटाइन के नाम पर जो माहौल आज समाज में पैदा हो रहा है उसके परिणाम स्वरूप ही दुनिया के तमाम मंचों से इसके विरोध में स्वर उठने शुरू हो गए हैं।
एक दार्शनिक ने तो लव को `ए मिसअंडरस्टैंडिंग बिटवीन टू फूल्स` करार दिया है तो वहीं वेलेंटाइन के धूर विरोधी चार्ली लिखते हैं- ~वेलेंटाइन डे अकेला एक ऐसा राष्ट्रीय पर्व है जो एक दिमागी बीमारी को समर्पित है। आपाहिज बनाने वाले लव नाम के इस छलावे को मनाने के लिए लोग फूल भेजेंगे,विज्ञापन छपवाएंगे और रेस्तरा बुक करवाएंगे। चार्ली ने तो वेलेंटाइन डे के पागलपन से मुकाबले के लिए 15 फरवरी को अनवेलेंटाइन डे के रूप में मनाने की नसीहत तक दे डाली। उनके अनुसार एक दिन तो इश्क के निगेटिव पहलुओं को भी समर्पित होना चाहिए। एक ऐसा दिन जब लोग ऐसे संदेशों को भी भेज सकें ......तुमने मेरी जिन्दगी बर्बाद कर दी अब हमें अलग हो जाना चाहिए.........माफ करो बाबा.......।
प्रेम का वास्तविक रूप यह नहीं है जो आज समास में व्याप्त है। प्रेम में समर्पण का भाव होता है उसमें बनावटीपन और खोखलापन नहीं होता। प्रेम का असली पाठ तो हम उस छोटे से नीरीह कीट से सीख सकते हैं जो यह जानते हुए भी की दीपक के पास जाने से उसके अस्तित्व को खतरा है वह प्रेम ही है जिसके वशीभूत वह अपने प्राण तक को न्योछावर करने से पीछे नहीं हटता। लैला-मजनूं, हीर-रांझा, सीरी-फरहाद की प्रेम कहानियां यदि सिर्फ गुलाबों की अदला-बदली से लेकर शारीरिक प्रेम तक ही सीमित होतीं तो अमर प्रेम कहानी नहीं बनतीं अपितु कब की मिट गई होतीं परंतु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वहां दिखावा नहीं वास्तविक प्रेम था। वहां झूठे प्रेम के फेहरिस्त में शामिल होने और दोस्तों को अपनी प्रेममयी लिस्ट दिखाने की होड़ नहीं थी बल्कि अपने प्रेम को भगवान का रूप मानकर उसे वरण करने की ललक थी। तब दिल से दिल के मिलन का चलन था आज जिस्म से जिस्म के मिलन की चाहत है।
जरूरत है वेलेंटाइन के यथार्थ तो समझने की। वेलेंटाइन के उस स्वरूप को समझने की जिसमें सादगी है,अपनापन है,समर्पण है। आज की युवा पीढ़ी हर मामले में अपने पुरखों से आगे है और नित आगे निकलने के प्रयास में है तो फिर प्रेम के क्षेत्र में यह पिछड़ापन क्यूं क्या उस बाजारवाद के कारण जो इतना हावी हो गया है कि जब चाहे तब हमको हमीं से चुरा ले और हम ऐतराज भी न जता सकें। आखिर ऐसा कब तक चलेगा ? युवा पीढ़ी को समय रहते इससे पार पाना होगा। बाजार से उपर उठकर प्यार के सच्चे आयाम को अपनाना होगा। और तब.....................
`` जिस्म नहीं जज्बात बोलेंगे,
लोग तोहफे नहीं प्य़ार तोलेंगे। ``